26/11 के बाद मनमोहन-गिलानी मुलाकात ने बदली थी नीति, संसद में बहस से पहले फिर छिड़ा ‘विश्वासघात’ का विवाद
Published on: July 28, 2025
By: [BTNI]
Location: New Delhi, India
26 नवंबर 2008 को मुंबई में हुए आतंकी हमले ने न केवल भारत को हिलाकर रख दिया, बल्कि देश की सुरक्षा नीतियों और विदेश नीति पर गहरे सवाल खड़े किए। इस हमले में 166 लोग मारे गए थे और लश्कर-ए-तैयबा जैसे पाकिस्तान समर्थित आतंकी संगठन की संलिप्तता साबित हो चुकी थी। लेकिन मात्र नौ महीने बाद, 16 जून 2009 को मिस्र के शर्म-अल-शेख में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी की मुलाकात ने एक ऐसा संयुक्त बयान जारी किया, जिसने भारत के रुख को लेकर देश-विदेश में तीव्र बहस छेड़ दी।
इस बयान में कहा गया कि “आतंकवाद पर कार्रवाई को समग्र शांति वार्ता से जोड़ा नहीं जाना चाहिए।” इसके साथ ही, बयान में बलूचिस्तान में भारत की कथित भूमिका का जिक्र भी शामिल था, जिसे कई विश्लेषकों ने भारत के लिए अपमानजनक और रणनीतिक चूक माना।यह बयान उस समय सामने आया, जब मुंबई हमले के जख्म अभी ताजा थे। भारत में जनता और विपक्षी दल पाकिस्तान पर कठोर कार्रवाई की मांग कर रहे थे।
हमले के लिए जिम्मेदार आतंकी संगठन के तार पाकिस्तान से जुड़े थे, और भारत ने इसका सबूत भी दुनिया के सामने रखा था। ऐसे में, आतंकवाद और शांति वार्ता को अलग करने का फैसला कई लोगों के लिए हैरान करने वाला था। आलोचकों का कहना था कि यह बयान पाकिस्तान को जवाबदेही से बचाने का एक तरीका था, जिसने आतंकवाद के खिलाफ भारत की नीति को कमजोर किया। उस समय बीजेपी सहित कई विपक्षी दलों ने इसे “राष्ट्रीय हितों के साथ विश्वासघात” करार दिया था। बीजेपी नेता अरुण जेटली ने संसद में इस बयान की कड़ी आलोचना करते हुए कहा था कि यह भारत की आतंकवाद विरोधी नीति को कमजोर करने वाला कदम है।
संयुक्त बयान में बलूचिस्तान का जिक्र भी विवाद का एक बड़ा कारण बना। पाकिस्तान ने लंबे समय से बलूचिस्तान में अशांति के लिए भारत पर आरोप लगाए थे, लेकिन भारत ने हमेशा इन आरोपों को खारिज किया था। शर्म-अल-शेख में इस मुद्दे को शामिल करना कई लोगों ने भारत की ओर से कमजोरी के रूप में देखा। तत्कालीन विदेश सचिव शिवशंकर मेनन ने बाद में स्पष्ट किया कि बयान का मसौदा जल्दबाजी में तैयार किया गया था, लेकिन तब तक नुकसान हो चुका था।
इस बयान ने भारत की कूटनीतिक स्थिति को कमजोर करने के साथ-साथ पाकिस्तान को यह संदेश दिया कि वह आतंकवाद के मुद्दे पर दबाव से बच सकता है।आज, जब संसद में पहलगाम आतंकी हमले (22 अप्रैल 2025) और इसके बाद शुरू किए गए ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर 16 घंटे की चर्चा होने वाली है, 2009 का यह संयुक्त बयान फिर से चर्चा के केंद्र में है। पहलगाम हमले में 26 नागरिकों की जान गई थी, और जांच में तीन पाकिस्तानी आतंकियों—आसिफ फौजी, सुलेमान शाह, और अबु तल्हा—के साथ-साथ दो स्थानीय आतंकियों की संलिप्तता सामने आई थी, जिन्हें पाकिस्तान में प्रशिक्षण मिला था। बीजेपी ने इस बयान को याद दिलाते हुए कांग्रेस पर आरोप लगाया है कि उसने आतंकवाद के खिलाफ भारत की लड़ाई को कमजोर करने का प्रयास किया।
Also read- https://www.btnewsindia.com/pm-modi-embarks-on-historic-state-visit-to-maldives-strengthening-bilateral-ties/ https://www.btnewsindia.com/priyanka-gandhis-witty-retort-to-bjps-non-serious-jibe-at-rahul-gandhi/
बीजेपी प्रवक्ता ने कहा, “2009 का संयुक्त बयान एक ऐसी गलती थी, जिसने आतंकवाद के खिलाफ भारत की नीति को कमजोर किया। आज जब हम पहलगाम हमले पर बहस कर रहे हैं, हमें यह याद रखना होगा कि कौन राष्ट्रीय हितों के साथ खड़ा था और कौन नहीं।”दूसरी ओर, कांग्रेस ने इस आलोचना का जवाब देते हुए कहा कि 2009 के बयान को उस समय की परिस्थितियों में देखा जाना चाहिए। कांग्रेस नेताओं का तर्क है कि शांति वार्ता को बनाए रखने के लिए यह बयान एक कूटनीतिक कदम था, और इसका उद्देश्य भारत-पाक संबंधों को सामान्य करना था।
हालांकि, पार्टी ने यह भी कहा कि आतंकवाद के खिलाफ उनकी सरकार की नीति हमेशा कठोर रही है। यह विवाद न केवल भारत-पाक संबंधों को बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद विरोधी नीति को भी प्रभावित कर रहा है। संसद की आगामी बहस में यह मुद्दा जोर-शोर से उठने की उम्मीद है, जहां सत्तारूढ़ दल और विपक्ष के बीच तीखी नोकझोंक देखने को मिल सकती है। 2009 का शर्म-अल-शेख बयान आज भी भारत की विदेश नीति के इतिहास में एक विवादास्पद अध्याय के रूप में दर्ज है, जो यह सवाल उठाता है कि क्या उस समय लिया गया यह फैसला भारत के हितों के खिलाफ था।