कार्यपालिका के प्रमुख की नियुक्ति में न्यायपालिका की भागीदारी संवैधानिक बहस को हवा
Published on: July 07, 2025
By: BTNI
Location: New Delhi, India
केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) के निदेशक की नियुक्ति में भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) की भागीदारी को लेकर एक नई बहस छिड़ गई है। कई लोग इसे कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच की रेखा को धुंधला करने वाला कदम मान रहे हैं। हाल के दिनों में इस मुद्दे पर सवाल उठाए गए हैं कि क्या यह व्यवस्था वैश्विक स्तर पर कहीं और लागू है, और क्या यह भारत के संवैधानिक ढांचे के अनुरूप है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह निर्णय कार्यपालिका की स्वायत्तता पर सवाल उठाता है।
वैश्विक तुलना: अनोखा मॉडल?
दुनिया भर में जांच एजेंसियों के प्रमुखों की नियुक्ति आम तौर पर कार्यपालिका या संसदीय समितियों द्वारा की जाती है। उदाहरण के लिए, अमेरिका में एफबीआई निदेशक की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है, जिसे सीनेट की मंजूरी चाहिए। ब्रिटेन में स्कॉटलैंड यार्ड के प्रमुख की नियुक्ति गृह सचिव द्वारा की जाती है। भारत में सीबीआई निदेशक की नियुक्ति के लिए एक समिति में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और सीजेआई या उनके नामित सुप्रीम कोर्ट जज शामिल होते हैं, जो इसे एक अनोखा मॉडल बनाता है। हालांकि, इसकी वैधता पर अभी तक कोई व्यापक वैश्विक अध्ययन उपलब्ध नहीं है।
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संवैधानिक व्यवस्था: क्या यह उचित है?
भारत के संविधान के तहत कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच स्पष्ट पृथक्करण है। सीबीआई निदेशक की नियुक्ति में सीजेआई की भूमिका को कुछ लोग संवैधानिक संतुलन के रूप में देखते हैं, जो एजेंसी की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है। दूसरी ओर, आलोचकों का कहना है कि यह कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप है। 1997 के विनीत नारायण मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस व्यवस्था को स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए लागू किया था, लेकिन हाल के बयानों से इस पर फिर से विचार की मांग उठ रही है।
ऐतिहासिक पदानुक्रम में सीबीआई निदेशक की स्थिति
सीबीआई निदेशक, जो एक विभाग का प्रमुख है, पदानुक्रम में केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी), कैबिनेट सचिव और सभी सचिवों से नीचे है। यह तथ्य इस बहस को और जटिल बनाता है कि क्या एक निचले स्तर के अधिकारी की नियुक्ति में शीर्ष न्यायिक अधिकारी की भागीदारी उचित है।
कुछ विशेषज्ञों का सुझाव है कि कार्यपालिका को इस प्रक्रिया को पूरी तरह अपने हाथ में लेना चाहिए ताकि प्रशासनिक स्पष्टता बनी रहे।यह विवाद भारत की शासन प्रणाली में एक बड़े संवैधानिक सवाल को जन्म दे रहा है। क्या न्यायपालिका को कार्यपालिका की नियुक्तियों में हस्तक्षेप करना चाहिए, या यह स्वायत्तता को कमजोर करता है? आने वाले दिनों में इस पर और चर्चा की उम्मीद है।