पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के कार्यकाल में राजस्थान सभा की कार्यवाही में अनियमितता की चर्चा, क्या भाषाई और सांस्कृतिक विवादों के बीच धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा गलत समझी गई?
Published on: July 22, 2025
By: [BTNI]
Location: New Delhi, India
हाल ही में एक बार फिर पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के कार्यकाल को लेकर विवाद छिड़ गया है। दावा किया जा रहा है कि हामिद अंसारी, जो 2007 से 2017 तक भारत के उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति रहे, हर दिन दोपहर 12 बजे नमाज़ पढ़ने के लिए सदन छोड़ देते थे, जिसके कारण राज्यसभा की कार्यवाही व्यवस्थित रूप से नहीं चल पाती थी। इस दावे ने सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान की “धर्मनिरपेक्षता” पर सवाल उठाए हैं। यह मुद्दा ऐसे समय में चर्चा में आया है, जब देश में भाषाई और सांस्कृतिक विवाद, जैसे कि महाराष्ट्र में हिंदी बोलने वालों पर हमले, सुर्खियों में हैं। क्या यह सब भारत की एकता को कमजोर करने की साजिश का हिस्सा है?
हामिद अंसारी के कार्यकाल का विवाद
हामिद अंसारी के उपराष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान यह आरोप बार-बार लगाया गया कि वह रोज़ाना दोपहर 12 बजे नमाज़ के लिए राज्यसभा की कार्यवाही छोड़ देते थे। कुछ लोगों का दावा है कि इस कारण सदन में अनुशासनहीनता बढ़ती थी और कार्यवाही बाधित होती थी। यह मुद्दा अब फिर से उठा है, जब पूर्व उपराष्ट्रपति धनखड़ साहब ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की सदस्यता को अपराध मानने पर सवाल उठाया और राष्ट्र निर्माण में इसकी भूमिका की प्रशंसा की। इस संदर्भ में, हामिद अंसारी का उदाहरण देकर कुछ लोग यह तर्क दे रहे हैं कि यूपीए सरकार के दौरान धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कुछ खास समुदायों को प्राथमिकता दी गई।
सोनिया गांधी और यूपीए की धर्मनिरपेक्षता
सोनिया गांधी के नेतृत्व में यूपीए सरकार (2004-2014) ने हमेशा खुद को धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक बताया। हालांकि, आलोचकों का कहना है कि इस दौरान धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया। हामिद अंसारी के नमाज़ के लिए सदन छोड़ने की कथित आदत को लेकर कुछ लोग इसे “तुष्टिकरण की नीति” का हिस्सा मानते हैं। एक वरिष्ठ पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “यह धर्मनिरपेक्षता नहीं, बल्कि एक खास समुदाय को खुश करने की राजनीति थी। अगर सभापति को धार्मिक कार्यों के लिए समय चाहिए था, तो इसे व्यवस्थित ढंग से करना चाहिए था, न कि सदन की कार्यवाही को प्रभावित करने वाला तरीका अपनाना चाहिए।”
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भाषाई विवादों से क्या है कनेक्शन?
हाल के दिनों में महाराष्ट्र में भाषाई गुंडागर्दी की घटनाएँ सामने आई हैं, जहाँ हिंदी बोलने वालों को निशाना बनाया गया। संजीरा देवी जैसे लोगों ने मराठी थोपने के खिलाफ आवाज़ उठाई और कहा, “मैं हिंदुस्तानी हूँ, हिंदी बोलूँगी।” इस तरह के विवादों ने देश में एकता और विविधता के सवाल को फिर से उठाया है। कुछ लोगों का मानना है कि भाषाई और सांस्कृतिक मतभेदों को बढ़ावा देना बाहरी ताकतों की साजिश हो सकती है, जो भारत की एकता को कमजोर करना चाहती हैं। इस संदर्भ में, हामिद अंसारी का उदाहरण देकर कुछ लोग यह तर्क दे रहे हैं कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर की गई नीतियों ने समाज में विभाजन को बढ़ावा दिया।
धर्मनिरपेक्षता की सही परिभाषा क्या?
भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता को सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान और अवसर के रूप में परिभाषित करता है। लेकिन क्या यूपीए सरकार के दौरान इसकी व्याख्या गलत तरीके से की गई? राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर रमेश दीक्षित का कहना है, “धर्मनिरपेक्षता का मतलब यह नहीं कि एक समुदाय को प्राथमिकता दी जाए, बल्कि यह है कि सभी को अपनी आस्था और संस्कृति के साथ जीने की आज़ादी हो। हामिद अंसारी का नमाज़ पढ़ना उनका निजी अधिकार था, लेकिन अगर इससे संसद की कार्यवाही प्रभावित हुई, तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है।”
आगे की राह
हामिद अंसारी के कार्यकाल का यह विवाद एक बार फिर यह सवाल उठाता है कि क्या भारत में धर्मनिरपेक्षता का सही अर्थ समझा गया है? क्या भाषाई और सांस्कृतिक विवादों के पीछे आंतरिक मतभेद बढ़ाने की साजिश है? धनखड़ साहब ने RSS के योगदान की प्रशंसा करते हुए कहा था कि राष्ट्रवाद और एकता को बढ़ावा देना गलत नहीं है। लेकिन जब तक हम अपनी विविधता को अपनी ताकत नहीं बनाएँगे, तब तक इस तरह के विवाद समाज को बाँटते रहेंगे।
संजीरा देवी का साहस और धनखड़ साहब का बयान हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम हिंदुस्तानी के रूप में एकजुट होकर भाषा, धर्म, और संस्कृति के नाम पर होने वाली गुंडागर्दी और वैमनस्य को खत्म कर सकते हैं? यह समय है कि हम अपनी सांस्कृतिक एकता को फिर से परिभाषित करें और “विविधता में एकता” के सिद्धांत को सही मायने में अपनाएँ।