नेहरू के लंच पर 13,000 रुपये खर्चा जबकि देश के 14 करोड़ लोग दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे हैं – लोहिया का लोकसभा में सीधा सपाट व्यक्तव्य
Published on: May 30, 2025
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भारतीय राजनीति में समाजवादी विचारधारा के प्रखर प्रचारक और स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी डॉ. राममनोहर लोहिया ने अपनी बेबाकी और तथ्यपरक आलोचनाओं के लिए हमेशा सुर्खियां बटोरीं। 1963 में लोकसभा में उनकी एक ऐतिहासिक बहस ने देश का ध्यान खींचा, जब उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के खर्चों पर सवाल उठाते हुए देश की गरीबी और असमानता को उजागर किया। यह बहस, जिसे “तीन आना बनाम पंद्रह आना” की बहस के रूप में जाना जाता है, न केवल नेहरू सरकार की नीतियों की आलोचना थी, बल्कि भारत की सामाजिक-आर्थिक वास्तविकता को सामने लाने का एक सशक्त प्रयास भी था।

पृष्ठभूमि
राममनोहर लोहिया, जो 1963 में फर्रुखाबाद से लोकसभा उपचुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे, समाजवादी विचारधारा के प्रबल समर्थक थे। वे मानते थे कि भारत में आर्थिक और सामाजिक असमानता को दूर करना स्वतंत्रता के बाद की सबसे बड़ी चुनौती है। उनकी नजर में, देश का नेतृत्व और नीति-निर्माण आम जनता की वास्तविकता से कटा हुआ था। लोहिया ने अपनी तीखी आलोचनाओं और तथ्यपूर्ण भाषणों के जरिए सरकार को कठघरे में खड़ा करने का काम किया।
1963 की लोकसभा बहस में लोहिया ने एक ऐसा मुद्दा उठाया, जिसने न केवल संसद को हिलाकर रख दिया, बल्कि देश की जनता के बीच भी व्यापक चर्चा का विषय बन गया। उन्होंने दावा किया कि जब देश की 70% आबादी प्रतिदिन तीन आना (एक आना 1/16 रुपये के बराबर था) पर अपनी जिंदगी गुजार रही है, तब प्रधानमंत्री नेहरू पर राजकीय कोष से प्रतिदिन 25,000 रुपये खर्च किए जा रहे हैं। इस दावे में उन्होंने यह भी कहा कि नेहरू के भोजन (लंच) पर ही 13,000 रुपये का खर्चा आता है, जबकि देश के 14 करोड़ लोग दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे हैं।
“तीन आना बनाम पंद्रह आना” की बहस
लोहिया के इस बयान ने सदन में तूफान खड़ा कर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि देश की अधिकांश जनता, जो गरीबी और भुखमरी से जूझ रही है, उसकी औसत आय मात्र तीन आना प्रतिदिन है। इसके विपरीत, प्रधानमंत्री के व्यक्तिगत खर्च, विशेष रूप से उनके भोजन और अन्य सुविधाओं पर होने वाला खर्च, असमानता की गहरी खाई को दर्शाता है। लोहिया ने यह भी उल्लेख किया कि नेहरू के कुत्ते पर होने वाला खर्च भी आम आदमी की दैनिक आय से कई गुना अधिक है।

जवाहरलाल नेहरू ने इस दावे का खंडन करते हुए योजना आयोग के आंकड़ों का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि देश की 70% जनता की औसत आय 15 आना प्रतिदिन है। इस पर लोहिया ने पलटवार करते हुए कहा, “नेहरू जी, तीन आना और पंद्रह आना तो ठीक है, लेकिन 25,000 रुपये में तो लाखों आना होते हैं!” इस जवाब ने न केवल नेहरू को असहज किया, बल्कि सरकार की नीतियों और नेतृत्व की विलासिता पर सवाल उठाए।
इस बहस का महत्व
लोहिया की यह बहस केवल आंकड़ों की जंग नहीं थी, बल्कि यह भारत में व्याप्त आर्थिक असमानता और सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ एक प्रतीकात्मक आह्वान था। उन्होंने अपने भाषणों और लेखों के माध्यम से बार-बार यह बात दोहराई कि जब तक देश की जनता की बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं होंगी, तब तक सत्ता का कोई भी खर्च उचित नहीं ठहराया जा सकता। उनकी यह टिप्पणी कि “14 करोड़ लोग दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे हैं” ने देश के गरीब और वंचित वर्गों की आवाज को संसद तक पहुंचाया।
लोहिया की यह आलोचना समाजवादी विचारधारा के मूल सिद्धांतों को दर्शाती थी, जिसमें समानता, सामाजिक न्याय और सत्ता का विकेंद्रीकरण शामिल था। उन्होंने यह भी कहा कि भारत की प्रगति तभी संभव है, जब नीतियां और संसाधन आम जनता के हित में उपयोग किए जाएं।
सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव
इस बहस ने न केवल नेहरू सरकार को असहज किया, बल्कि कांग्रेस के एकछत्र शासन के खिलाफ विपक्षी एकजुटता को भी बल दिया। लोहिया के “गैर-कांग्रेसवाद” के नारे ने 1967 के चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जब कांग्रेस कई राज्यों में सत्ता से बाहर हो गई। उनकी यह आलोचना आज भी भारतीय राजनीति में सामाजिक-आर्थिक असमानता के मुद्दे को उठाने के लिए प्रासंगिक मानी जाती है।
लोहिया ने अपनी इस बहस के जरिए यह साबित किया कि संसद केवल कानून बनाने का स्थान नहीं, बल्कि जनता की आवाज उठाने और सत्ता को जवाबदेह बनाने का मंच भी है। उनकी तीखी आलोचनाएं और तथ्यपरक तर्क आज भी राजनीतिक कार्यकर्ताओं और समाजवादियों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।
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निष्कर्ष
राममनोहर लोहिया की लोकसभा में उठाई गई “तीन आना बनाम पंद्रह आना” की बहस भारतीय राजनीति के इतिहास में एक मील का पत्थर है। यह न केवल नेहरू सरकार की नीतियों की आलोचना थी, बल्कि देश में व्याप्त गरीबी, भुखमरी और असमानता के खिलाफ एक सशक्त आवाज थी। लोहिया का यह सवाल कि जब 14 करोड़ लोग दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहे हैं, तब सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग विलासिता पर भारी खर्च कैसे कर सकते हैं, आज भी प्रासंगिक है। उनकी यह बहस हमें याद दिलाती है कि सच्चा लोकतंत्र वही है, जो समाज के सबसे कमजोर वर्ग की आवाज को सुनता और उनके लिए काम करता है।